कर्मवीर
पतझड़ आई है जीवन में, हर पात धरा पर गिरती है, गिरती उमंग उल्लास नया, विपदाएं आहे भरती हैं, गिरकर उठकर बाधाओं में, बेखौफ खडे हो जाते थे, सूरज की तपती गर्मी में, मिलकर जो कदम बढ़ाते थे, पर आज खडे संघर्षों में, होकर निराश हो कर निर्झर, लगता है डर से बांधा हैं, उसने निज सीने पर पत्थर, पर बोलो बिन बाती जग में, यहां किसका दीपक जलता हैं, बोलो बिन तपे यहां लोहा, कैसे आकार बदलता है, जैसे कि घोर अंधेरे में, जुगनू अंधियारा हरते हैं, कोई खेतों की गोदी में, बिन रुके हौसला भरते है, कसकर हाथों को जो निर्भय, विघ्नों को गले लगाते हैं, है निश्चीत वो ही जीवन में, अपना इतिहास बनाते हैं, रवि यादव, कवि कोटा, राजस्थान 9571796024